पिता दिवस पर कविता – उत्कर्ष राय
आँखे मुंदी चेहरा मलिन , कभी शांत तो कभी बेचैन था
झुर्रियों से भरा हाथ, पट्टियों नलियों से लैस था
मेरे आँसू की कुछ बूंदे, उनके स्याह हाथ पर पड़ गई
कष्ट से उनकी आँखें खुलीं , और मेरे चेहरे पर टिक गई
अधरों पर हल्की सी मुस्कान आई, फिर पीड़ा में बदल गई
ष्बेटा मुझे मत रोको , आवाज मेरे अंदर धंस गई
जिसके भव्य व्यक्तित्व के आगे, सारे नत मस्तक रहते थे
जिसके कठोर अनुशासन के किस्से, चारों तरफ फैले थे
जिसकी डाँट की एक आवाज से , पूरा ऑफिस कांपता था
आज वो बेबस लाचार , मृत्यु की भीख माँग रहा था
बचपन से लेकर आजतक की, घटनाएँ सारी तैरने लगी
सारे खत तो माँ को लिखे , अंतिम पंक्ति पिता के हिस्से लगी
शायद कभी खुलकर पिता से , लम्बी बात की न थी
पर मुश्किलों में उनकी उपस्थिति, हौसला बुलंद करती थी
प्रत्यक्ष में उन्होंने कभी न प्यार , न कभी दुलार दिखाया था
पर मुझे अहसास था कि, उन्हें सदा मुझपर गर्व था
डॉक्टरों नर्सो की गहमागहमी से, ध्यान ईसीजी पर चला गया
स्क्रीन की थिरकती रेखाओं का नृत्य , धीरे धीरे ठहर गया
शून्यता मेरे अंदर चुपके से , ऐसे घर कर गई
मिथ्या जीवन के कटु सत्य से, मुझको रूबरू करा गई
मैं बुत बना बैठा था, कि तभी कोई फार्म रख गया
कांपते हाथों से ष्स्वर्गीयष् लिखते ही, सब खत्म हो गया
बच्चे पिता से दूर दूर क्यों रहते हैं ?
क्या पिता उनके भविष्य का, हिस्सा नहीं होते हैं ?
शायद कहीं यह पहल भी, मुझे ही करनी होगी
खुद को बदलकर बच्चों से , खुलकर बातें करनी होगी
उत्कर्ष राय – एग्जीक्यूटिव कोच, भूतपूर्व मैनेजिंग डायरेक्टर (आई. टी. मल्टीनेशनल) , अभिनेता (फिल्म ’बाटला हाउस’ से शुरुआत)
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे – विकास कुमार – 8057409636