कश्मीरी अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी ने ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस से इस्तीफा दिया

कश्मीर बनेगा पाकिस्तान और कश्मीर में आतंकी हिंसा को हमेशा जायज ठहराने वाले कट्टरपंथी नेता सईद अली शाह गिलानी ने अंतत: खुद को आल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस से पूरी तरह अलग करने का एलान कर दिया है। वह अब हुर्रियत का हिस्सा नहीं हैं। पांच अगस्त 2019 के बाद जम्मू कश्मीर में लगातार बदल रहे सियासी हालात के बीच यह अलगाववादी खेमे की सियासत का सबसे बड़ा घटनाक्रम है।

वयोवृद्ध गिलानी जो इस समय सांस, हृदयोग, किडनी रोग समेत विभिन्न बिमारियों से पीड़ित हैं, ने आज एक आडियो संदेश जारी किया है। इसके अलावा उन्होंने दो गुटाें में बंटी हुर्रियत कांफ्रेंस के कट्टरपंथी गुट के सभी घटक दलों के नाम एक पत्र भी जारी किया है। अपने आडियो संदेश में उन्होंने कहा है कि माैजूदा हालात में मैं आल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस से इस्तीफा देता हूं। मैंने हुर्रियत के सभी घटक दलों और मजलिस ए शूरा को भी अपने फैसले से अवगत करा दिया है।

आपको जानकारी हो कि आल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस कश्मीर में सक्रिय सभी छाेटे बड़े अलगाववादी संगठनों का एक मंच है। इसका गठन 1990 के दशक में कश्मीर में जारी आतंकी हिंसा और अलगाववादी सियासत को संयुक्त रुप से एक राजनीतिक मंच प्रदान करने के इरादे से किया गया था। कश्मीर में 1990 की दशक की शुरुआत में सक्रिय सभी स्थानीय अातंकी संगठन प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रुप से किसी न किसी अलगाववादी संगठन से जुड़े थे।

नौ मार्च 1993 को 26 अलगाववादी संगठनों ने मिलकर इसका गठन किया और मीरवाइज मौलवी उमर फारुक को इसका पहला चेयरमैेन बनाया गया। हुर्रियत कांफ्रंस में छह सदस्यीय कार्यकारी समिति भी बनायी गई थी। इसी समिति का फैसला अंतिम माना जाता रहा है। कट्टरपंथी सईद अली शाह गिलानी ने अन्य अलगाववादी नेताओं के साथ नीतिगत मतभेदाें के चलते सात अगस्त 2004 काे अपने समर्थकाें संग हुर्रियत का नया गुट बनाया। इसके साथ ही हुर्रियत दो गुटाें में बंट गई। गिलानी के नेतृत्व वाली हुर्रियत को कट्टरपंथी गुट और मीरवाइज मौलवी उमर फारुक की अगुवाई वाले गुट को उदारवादी गुट कहा जाता रहा है।

हुर्रियत की सियासत पर नजर रखने वालों के मुताबिक कट्टरपंथी सईद अली शाह गिलानी के खिलाफ हुर्रियत कांफ्रेंस के भीतर बीते कुछ सालों से विरोध लगातार बढ़ता जा रहा था। इसके अलावा वह वर्ष 2017 से कश्मीर में अलगाववादी सियासत को कोई नया मोड़ देने में असमर्थ साबित हो रहे थे। वह कोई भी बड़ा फैसला नहीं ले पा रहे थे। बीते एक साल के दौरान उन्होंने लगभग चुप्पी साध ली थी। इससे गुलाम कश्मीर स्थित हुर्रियत कांफ्रेंस की इकाई अपने स्तर पर ही सभी प्रमुख फैसले ले रही थी। जम्मू कश्मीर में सक्रिय हुर्रियत नेता भी गिलानी के नेतृत्व पर लगातार सवाल उठा रहे थे और लगातार उनसे दूरी बनाए रखे हुए थे। हुर्रियत में लगातार बठते बगावत के स्वर को देख गिलानी ने इससे अलग होने का फैसला लिया।

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