उत्तराखंड में BJP-कांग्रेस के बीच ‘महामुकाबला’, इन दिग्गजों के नेतृत्व की परीक्षा

उत्तराखंड की 70 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव मैदान में उतरे 632 प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला 14 फरवरी को मतदाताओं ने कर दिया, लेकिन परिणाम के लिए 10 मार्च तक का इंतजार करना पड़ेगा। कोविड प्रोटोकाल व कड़ाके की सर्दी के कारण इस बार पारंपरिक चुनाव प्रचार अभियान नहीं दिखाई दिया। अंतिम चार दिनों में प्रदेश में सत्ता की दावेदार भाजपा व कांग्रेस ने स्टार वार छेड़ा। कितना प्रभाव कौन डाल पाया यह परिणाम आने पर ही स्पष्ट हो पाएगा। प्रदेश कांग्रेस ने इस बार चुनावी महासमर के केंद्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को न लाने की रणनीति बनाई थी, लेकिन चुनाव के आखिरी दिनों में मोदी मुद्दा बन ही गए। कांग्रेस के पास मोदी का जवाब नहीं था व भाजपा के पास मोदी का नाम ही सब कुछ था। इधर कांग्रेस में परिणाम से पहले ही मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर रार छिड़ गई है।

निर्वाचन आयोग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार राज्य में 65.10 मतदान हुआ है। हालांकि यह आंकड़ा पिछले चुनाव के लगभग बराबर ही है। वर्तमान स्थिति में यह मत प्रतिशत उत्साहजनक ही कहा जाएगा। बड़ी-बड़ी रैलियां व रोड शो के बेहद सीमित होने के कारण राजनीतिक पंडितों को दलों का भाग्य बांचने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। राजनीतिक दल खुद को लेकर इतने सकारात्मक हैं कि एक-दो सीट की उम्मीद रखे दल भी सत्ता में निर्णायक भागीदारी की योजना बना रहे हैं। भाजपा व कांग्रेस के रणनीतिकार मतदान के दिन दिखे मतदाताओं के उत्साह को अपने-अपने खांचे में बिठाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। भाजपा इसे डबल इंजन के कामों पर जनता की मुहर व मोदी करिश्मा कह कर परिभाषित कर रही है तो कांग्रेस इसमें एंटी इनकंबेंसी के फलितार्थ खोज रही है। 2017 के विधानसभा चुनाव में राज्य की कुल 70 विधानसभा सीटों में से 15 सीटें ऐसी थीं, जिन पर हार-जीत का फैसला पांच हजार से कम मतों से हुआ। पांच सीटें ऐसी थीं जिन पर हार-जीत एक हजार मतों से भी कम से हुई। बावजूद इसके सूक्ष्मदर्शी नेता जीत का आंकड़ा ही नहीं बता रहे, बल्कि सरकार में मंत्रियों की भी सूची बना ले रहे हैं।

इस बार राज्य के मतदाताओं को काफी कुछ नया भी अनुभव हुआ। हर बार वायदों व घोषणाओं के गुलर्छे तो उड़ते ही थे, लेकिन मैदान चुनावी ही लगता था। इस बार तो मतदाताओं को कई बार लगा जैसे किसी बाजार में खड़े हैं और चारों तरफ जबरदस्त सेल लगी है। पानी फ्री, बिजली फ्री, पेट्रोल फ्री, गैस फ्री, यहां तक की पार्किग फ्री। न जनता के प्रति जवाबदेही और न राज्य की आर्थिक स्थिति का भान। कम से कम वीर भूमि, देव भूमि उत्तराखंड के मतदाताओं के आत्मसम्मान का मान ही रख लिया होता। प्रदेश में कांग्रेस ने इस बार चुनावी महासमर के केंद्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को न लाने की रणनीति बनाई थी। उसने यह तय किया था कि वह उत्तराखंड का चुनाव उत्तराखंडियत पर ही लड़ेगी। उसका आक्रमण मुख्यमंत्री पर होगा न कि प्रधानमंत्री पर। उसके मुद्दे भी राज्य के होंगे।

चारधाम-चार काम को कांग्रेस ने मूल आधार बनाया। राज्य में तीन-तीन मुख्यमंत्रियों को मुद्दा बनाया। लोकलुभावन घोषणा पत्र भी जारी किया, लेकिन मतदान से पहले चार-पांच दिनों में ही मोदी सीन में आ गए। जब मोदी के जवाब में कांग्रेस ने राहुल गांधी की भी रैलियां कराईं तो लड़ाई मोदी बनाम राहुल होते दिखने लगी। जब हरिद्वार की रैली में राहुल गांधी ने ललकारा कि वह नरेन्द्र मोदी से नहीं डरते तो मतदाता का आकलन भी दोनों दिग्गजों के आस-पास होने लगा। इसके क्या परिणाम निकलते हैं, इसका भी इंतजार है। भाजपा इसको लेकर काफी उत्साहित है, लेकिन यह भी तथ्य है कि चुनाव राज्य का है। जनता को प्रदेश की सरकार ही चुननी है। इस दृष्टि से देखें तो उत्तराखंड के मतदाता हरदा या धामी में भी बेहतर विकल्प तलाश रहे होंगे। साथ ही भाजपा सरकार में पिछले पांच वर्षो में हुए कामकाज का मूल्यांकन कर रहे होंगे।

चुनाव परिणाम को अभी काफी समय है। बहुमत किसका आएगा पता नहीं, लेकिन कांग्रेस में मुख्यमंत्री को लेकर रार शुरू हो गई है। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत (हरदा) अब न केवल खुल कर बोल रहे रहे हैं, बल्कि पार्टी हाईकमान को साफ्ट वार्निग भी देने लगे हैं। कहते हैं कि राज्य में जब भी चुनाव हुआ सेनापति वही रहे, लेकिन स्टार किसी और के लगे। स्पष्ट है कि उनके साथ कांग्रेस में न्याय नहीं हुआ। ऐसा इस बार न हो, इसलिए वह कांग्रेस को भी सीधा संदेश दे रहे हैं। वह कह रहे हैं कि उनके पास दो ही विकल्प हैं, मुख्यमंत्री बनें या फिर घर बैठें।

जाहिर है पार्टी हाईकमान के पास दो ही विकल्प हैं या तो हरदा को मुख्यमंत्री बनाओ या उन्हें एवं उनके समर्थक विधायकों को घर बैठने दें। लगता है कि  हरदा इस बार पार्टी संगठन में किसी ओहदे या जिम्मेदारी पर समझौता करने को राजी नहीं हैं।

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